ये वो तस्वीर थी जिससे अंतरिक्ष पर खोज का दौर शुरू हुआ था। 1969 में आंकलन के मुताबिक़ 60 करोड़ लोगों ने अपने घरों में बैठकर अपोलो 11 के ईगल लैंडर को चांद पर लैंड होते देखा था।
एक छोटे क़दम के साथ अमेरिका ने अंतरिक्ष की दौड़ में जीत हासिल कर ली थी। लेकिन क्या हो अगर ये कभी हुआ ही ना हो? क्या हो अगर हम चांद पर कभी लैंड हुए ही ना हों?
क्या शीत युद्ध जल्दी खत्म हो सकता था? क्या जलवायु परिवर्तन और बुरा होता? और क्या आप हर वक्त खोए रहते?
आप देख रहे हैं ‘‘क्या हो अगर’’ और ये है क्या हो अगर हम चांद पर कभी लेंड ना हुए हो?
1957 में सोवियत संघ ने दुनिया की पहली आर्टीफिशियल यानी इंसानों द्वारा बनाई गई सैटेलाइट स्पटनिक को एक ऐसी रॉकेट तक़नीक के ज़रिए आर्बिट में सफल रूप से लॉन्च किया जो दुनिया की उम्मीदों के ख़िलाफ थी।
ये लॉन्च एक शुरुआती क़दम था जिसके साथ चांद पर पहले पहुंचने की दौड़ शुरू हो गई। और अमेरिका ने सबसे देर में शुरुआत की।
सोवियत संघ की जीत के जवाब में अमेरिका ने अपनी ख़ुद की स्पेस एजेंसी बनाई जिसे नासा के नाम से जाना जाता है।
अंतरिक्ष की यात्रा और वैज्ञानिक विकास के लिए बनी इस एजेंसी में पृथ्वी के लाखों सबसे बुद्दिमान लोगों की टीम ने साथ आकर दो अमेरिकी अंतरिक्ष यात्रियों की चांद पर लैंडिंग कराई और सोवियत से पहले चांद पर क़दम रखे।
• पर अगर वो मिशन कभी ना हुए होते तो क्या आज नासा का वजूद होता?
शीत युद्ध का एक नतीजा ये अंतरिक्ष की दौड़ केवल अधिकारों के दावों के बारे में नहीं थी।
जो भी चांद पर पहले जाएगा वो आगे जाकर पृथ्वी पर भी क़ाबू कर सकता है। लेकिन अगर इस अंतरिक्ष की दौड़ ने कभी इतना ज़ोर ना पकड़ा होता तो शायद शीत युद्ध जल्द ही ख़त्म हो गया होता।
पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की ये लड़ाई दशकों तक जारी रही और इस शीत युद्ध को लड़ा गया कुछ प्रतिनिधियों यानी प्रॉक्सी और जासूसों की मदद से।
दूसरे विश्व युद्ध के अंत के वक़्त से लेकर सोवियत संघ के बिखरने तक इस लड़ाई ने इन ताक़तवर देशों के बीच विदेश नीति से लेकर फ़िल्मों के सीक्वेल्स तक हर तरह के रिश्तों को बिगाड़ने का काम किया।
और अगर ये दोनों देश वैज्ञानिक और सैन्य रूप से आगे आने के लिए ना लड़ रहे होते तो शायद उनमें से कुछ प्रॉक्सी लड़ाइयां कभी ना लड़ी जातीं।
शीत युद्ध के चरम पर पहुंचने पर 1986 में लगभग 70,000 परमाणु हथियारों के ज़खीरे तैयार रखे गए थे। पर अगर ये ध्यान तक़नीक की तरफ़ ना लगाया गया होता तो शायद परमाणु हथियारों पर रोक लग सकती थी।
ज़ाहिर है आज हम जिस तक़नीक का इस्तेमाल करते हैं उनमें से कुछ कभी ना बनी होतीं।
जब आग लगने की एक दुखद घटना में अपोलो 1 के सभी सदस्य मारे गए तब नासा ने एक बहुत मज़बूत कपड़े के विकास पर काम शुरू किया जो तरल हाइड्रोजन से लेकर पिघले हुए सोने तक हर चीज़ को सह सके।
और दमकल कर्मियों के साथ मिलकर नासा ने ऐसे सांस लेने वाले मास्क बनाने पर भी काम किया जिनमें देखने की ज़्यादा जगह थी और जिन्हें पहनना ज़्यादा आसान था।
इन आविष्कारों के बिना दमकल कर्मियों और आपातकाल टीमों को ज़्यादा ख़तरों का सामना करना होता और शायद वो हर बार आपकी जान ना बचा पाते।
हां, तो ये कुछ ज़्यादा ही हो गया। पर अगर आप ये जानना चाहते हैं कि हमारी मिली-जुली संस्कृति में तक़नीक किस तरह से विकसित हुई है तो फ़ोन के बिना अपने जीवन की कल्पना करके देखिए।
आज, ये माइक्रोचिप वो क़रिश्मा है जिसकी वजह से हमारे कम्प्यूटर बास्केट बॉल के कोर्ट जितने बड़े होने की जगह हाथों में समा जाते हैं।
पर माइक्रोचिप से पहले हमारे पास इंटीग्रेटेड सर्किट थे जो कई इलेक्ट्रॉनिक चीज़ों को एक चिप में साथ लाने के लिए बनाए गए थे।
चांद पर जाने वाले अपोलो मिशन्स के लिए बनाए गए इंटीग्रेटेड सर्किट की वजह से कम जगह की ज़रूरत वाली तक़नीक लोगों के लिए उपलब्ध हो सकी। इंटीग्रेटेड सर्किट के बिना जो तक़नीक आज हमारी जेबों में है वो अब भी दीवारों पर लटक रही होती।
• पर इंटरनेट के लिए इसके क्या मायने है?
अगर चांद का कोई दौरा ना हुआ होता तो आज अंतरिक्ष के दौरे भी कम हुए होते। अगर वो शुरुआती टेस्ट रॉकेट कभी लॉन्च ना हुए होते तो वो सैटेलाइट नेटवर्क्स जिन्हें रॉकेट्स ने जगह पर पहुंचाया है शायद ना होते।
नासा ने ऐसे यान बनाए जो इतने ताक़तवर थे कि पृथ्वी से 36,000 किलोमीटर (22,000 मील) ऊपर सामान ले जा सकते थे और जियोसिंक्रोनस यानी भू-तुल्यकालिक ऑर्बिट्स में रख सकते थे।
इसका मतलब ये की सैटेलाइट्स उसी रफ़्तार से पृथ्वी के चक्कर काटती हैं जिस रफ़्तार से पृथ्वी घूमती है। अगर ये सैटेलाइट्स एक तय जगह पर चक्कर ना लगाती हों तो आज संचार का जो नेटवर्क हमारे पास है वो भी एक सपना होता।
यानी बिल्लियों और केक बनाने के मज़ेदार वीडियोज़ नहीं और ना ही क्या हो अगर। और जी.पी.एस के बारे में भूल जाइए।
ग्लोबस पोज़िशनिंग सिस्टम सैटेलाइट्स का एक इंटरकनेक्टेड यानी आपस में जुड़ा नेटवर्क है जो पृथ्वी के हर कोने की सही लोकेशन दिखाता है।
ऑर्बिट में कम सैटेलाइट्स होने पर ये सेवा आम लोगों के लिए मौजूद ना होती हालांकि सेना को निशाना साधने के लिए सही जगह पता होना ज़रूरी होता।
सेना की इस ज़रूरत की वजह से हमने शायद जी.पी.एस तक़नीक को बना लिया होता पर यहां तक पहुंचने में शायद लंबा वक़्त लग जाता। शायद नासा के लिए बात अलग होती।
आख़रिकार, ये एजेंसी तब तक नहीं थी जब तक सोवियत संघ ने अपना स्पटनिक लॉन्च नहीं किया था। पर अगर नासा ने चांद पर लैंड होने का लक्ष्य ना साधा होता तो इसके पूरे वजूद पर आज एक सवाल होता।
अगर हमें चांद पर जाने की कोशिश ना करनी होती तो इस महंगी एजेंसी की ज़रूरत भी क्यों होती? और अंतरिक्ष यात्रा की तक़नीक को सस्ता और ज़्यादा कारगर बनाना शायद हक़ीक़त ना होकर केवल एक थ्योरी होती।
बार-बार इस्तेमाल हो सकने वाले शटल जैसे अंतरिक्ष यान उतने ही असली होते जितनी अंतरिक्ष पर बनी फ़िल्में। हम हबल टेलीस्कोप की मदद से ली गई अंतरिक्ष की तस्वीरों को भी ना देख पाते।
ऐसी तस्वीरें होती ही नहीं। और, अगर सैटेलाइट्स मौसम का हाल ना बता रही होतीं और हमें रियल-टाइम इफेक्ट्स यानी वास्तविक समय पर कुछ ना दिखा रही होतीं तो हमें शायद जलवायु परिवर्तन के नतीजों के बारे में पता भी ना चल पाता।
यहां तक कि स्वास्थ्य की दिशा में हुआ विकास भी देर से हुआ होता। अंतरिक्ष के भयानक तापमान का सामना कर पाने के लिए नासा ने 1966 में लिक्विड कूलिंग और वेंटिलेशन यानी हवा देने वाले कपड़े बनाए।
ये हाइ-टेक कपड़ा आपके अंदर के तापमान को क़ाबू में रख सकता है और आज ये मल्टिपल स्कलेरोसिस यानी टिशू की बामारी से गुज़रने वाले लोगों के काम आता है।
जहां शीत युद्ध का ये पहलू एक परमाणु मुक़ाबले के डर के साथ शुरू हुआ वहीं, इन दोनों ताक़तों ने एक दूसरे की समझदारी और उत्सुकता को चुनौती भी दी।
अपनी दुनिया के पार खोज करने की इस पहल के ना होने पर आज हम मंगल पर बसने की बात नहीं कर रहे होते। नासा ने तो इंसानों को एक एस्टेरॉयड पर लैंड कराने की भी योजना बनाई है।
पर अगर हमारे पास चांद तक जाने का हुनर और तक़ीनक नहीं होते तो हम इतना पेचीदा कुछ करने के बारे में सोचते भी नहीं। बल्कि, हम इससे कुछ छोटा कर पाने की कोशिश कर रहे होते।
जैसे, क्या हो अगर हम एक एस्टेरॉयड पर परमाणु बम गिरा दें? जानने के लिए देखते रहें ‘‘क्या हो अगर’’ .
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